आदिशङ्कराचार्य जयन्ती, वैशाख शुक्ल पञ्चमी ( इस वर्ष १२ मई २०२४) के अवसर पर श्री महंत चेतनानन्द महाराज ने कहा धर्म की क्रांति के सूत्रधार आदि जगतगुरु शंकराचार्य
हरिद्वार 12 में 2024 को आदि जगतगुरु शंकराचार्य जी की 1236 वी जयंती पर बोलते हुए श्री महंत तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री पंच दशनाम आह्वान अखाड़ा स्वामी चेतनानंद गिरी जी महाराज ने कहा धर्म की क्रांति के सूत्रधार तथा जगत को कल्याण का मार्ग दिखाने वाले जगतगुरु भगवान शंकराचार्य को हम शत-शत नमन करते हैंl भारतवर्ष देवी-देवताओं के अवतारों की भूमि रही है । आज ई. सन् २०२४ से २५३१ वर्ष पूर्व युधिष्ठिर शक संवत् २६३१, वैशाख शुक्ल पञ्चमी, रविवार तदनुसार ईसवी सन् से ५०७ वर्ष पूर्व भारत की पवित्र भूमि पर केरल राज्य के अर्नाकुलम जिलान्तर्गत काल्टी गाँव में एक ऐसी महान् विभूति का अवतार हुआ जिनकी प्रसिद्धि विश्वस्तर पर सार्वभौम धार्मिकगुरु आदिशङ्कराचार्य के रूप में हुई ।उनके पिता शिवगुरु एवं माता आर्याम्बा को कोई सन्तान नहीं थी । उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने स्वयं उन्हे उनके पुत्र के रूप में अवतार लेनेका वरदान दिया । इसी कारण इनका नाम शङ्कर रखा गया था ।
यह एक विडम्बना ही है कि अनेक ग्रन्थों तथा घटनाक्रमों के आधार पर शिवावतार भगवत्पाद आदिशङ्कराचार्य महाभाग का अवतार यद्यपि ईसवी सन् से ५०७क वर्ष पूर्व सिद्ध है तथापि विदेशी षडयन्त्र के अन्तर्गत इसे विवादित बना दिया गया। किसी भी देश के इतिहास में उसके पूर्वजों की उपलब्धियों का भी सविस्तार उल्लेख होता है, जो वहाँ के लोगों के लिए प्रेरणास्रोत तथा गौरव का आधार बनता है । किन्तु भारत में सदियों तक आक्रान्ता मुगलों तथा अंग्रेजों का शासन रहा । इन शासकों ने यहाँ की संस्कृति, परम्परा तथा गौरवशाली अतीत को नष्ट करने तथा अपने अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए यहाँ के गौरवमय इतिहास को नष्ट करते हुए इसे गलत ढंगसे तैयार करवाया । शिवावतार भगवत्पाद आदिशङ्कराचार्य महाभाग के अवतारकाल के साथ भी ऐसा ही हुआ । ईसवी सन् के पूर्व किसी सार्वभौम धार्मिक गुरु होने की सच्चाई को अंग्रेज आत्मसात नहीं कर सके । अतः षड्यन्त्रपूर्वक आदिशङ्कराचार्य महाभाग के अवतार काल ईसवी सन् के ५०७ वर्ष पूर्व की जगह ८वीं शताब्दी प्रचारित-प्रसारित करवा दिया । परिणाम यह हुआ कि भारत के तथाकथित शिक्षित महानुभाव एवं शिक्षण संस्थाएं भी अंग्रेजों के इस षड्यन्त्र को न समझकर आदिशङ्कराचार्य महाभाग के अवतारकाल ८वीं शताब्दी मानने के पूर्वाग्रह से ही ग्रस्त हैं ।
ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरी के वर्तमान १४५वें श्रीमज्जगद्गुरु शङ्कराचार्य महाभाग ने लगभग ११०० पुष्ठों में विरचित "शिवावतार भगवत्पाद आदिशङ्कराचार्य" नामक ग्रन्थ में आदिशङ्कराचार्य के अवतार काल के सम्बन्ध में ग्रन्थों घटनाओं एवं मान्यताओं का विस्तृत वर्णन करते हुए आदिशङ्कराचार्य महाभाग का अवतार ईसवी सन् के ५०७ वर्ष पूर्व प्रमाणित किया है । उन सबका उल्लेख तो इस लेख में सम्भव नहीं है, तथापि पाठकों की जिज्ञासा की शान्ति एवं तथ्य की प्रामाणिकता के लिए कुछ प्रमाणों को यहाँ संक्षेप में सूत्रशैली में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
बृहच्छङ्करविजय के अनुसार आदिशङ्कराचार्य के गुरुदेव यागीन्द्र श्रीगोविन्दपादाचार्य का देहावसान युधिष्ठिर शक २६४६, प्लवङ्ग संवत्सर, कार्तिक पूर्णिमा, बृहस्पतिवार को हुआ था । अत: आदिशङ्कराचार्य का अवतार तथा सन्यास ग्रहण युधिष्ठिर शक २६४६ के पूर्व ही होना सुनिश्चित है । अतएव उनका अवतार इसके बाद कभी होना हास्यास्पद है ।
श्रीवासुदेव अभयङ्कर द्वारा रचित अद्वैतामोद के अनुसार श्रीभगवत्पाद का जन्मकाल युधिष्ठिर संवत् २६३१ तथा ३२ वर्ष की आयु में तिरोधान काल ( देहावसान ) युधिष्ठिर संवत् २६६३ है । युधिष्ठिर संवत् से कलिसंवत् ३६ से ३७ वर्ष बाद आरम्भ हुआ था । इस तरह युधिष्ठिर संवत् २६३१ कलि संवत् २५९४ के बराबर हुआ । अभी ईसवी सन् २०२४ में कलि संवत् ५१२५ है । अतएव आदिशङ्कराचार्य भगवान् का अवतार अभी से ५१२५ - २५९४ = २५३१ वर्ष पहले हुआ जो ईसवी सन् २५३१ - २०२४ = ५०७ वर्ष पूर्व होता है ।
भविष्योत्तर में भी आदिशङ्कराचार्य भगवान् का जन्म युधिष्ठिर संवत् २६३१ ही वर्णित है । द्वारका शारदापीठ के प्रथम शङ्कराचार्य श्रीमज्जगद्गुरु सुरेश्वराचार्य के साक्षात् पट्टशिष्य श्री चित्सुखाचार्य ने भी अपने ग्रन्थ ‘शङ्करविजय’ में भगवत्पाद का आविर्भाव युधिष्ठिर संवत् २६३१ ही उद्घोषित किया है । जैनोंके अभिमत 'जिनविजय' के अनुसार तथा 'पुण्यश्लोकमञ्जरी' के अनुसार भगवत्पाद का निर्वाण युधिष्ठिर संवत् २६६२ सिद्ध है । इस प्रकार उससे ३१ वर्ष पूर्व युधिष्ठिर संवत् २६३१ ही उनका जन्मकाल सिद्ध होता है । भगवत्पाद ने युधिष्ठिर संवत् २६५१ में अर्थात् ईसवी सन् से ४८७ वर्ष पूर्व नेपाल की भी यात्रा की थी । राजा सुधन्वा द्वारा भगवत्पाद को समर्पित ताम्र प्रशस्तिपत्र में भी युधिष्ठिर शक २६६३ का उल्लेख है जो भगवत्पाद के देहावसान का वर्ष है। ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय गोवर्द्धनमठ पुरीपीठ की स्थापना ईसवी सन् से ४८६ वर्ष पूर्व हुई और तबसे अभी तक के सभी शङ्कराचार्यों का उल्लेख उनके कार्यकाल के साथ उपलब्ध है जिससे आदिशङ्कराचार्य महाभाग का अवतार ईसवी सन् से ५०७ वर्ष पूर्व ही सिद्ध होता है न कि ईसवी सन् के बाद ।
आदिशङ्कराचार्य महाभाग का मात्र ३२ वर्ष का जीवनकाल अनेक विचित्रताओं से भरा रहा। पाँच वर्ष की अवस्था में उनका उपनयन संस्कार हुआ । आठ वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो चुका था । सन्यास लेने की भावना से आठ वर्ष की अवस्था में ही शङ्करने वैधव्य, जरावस्था तथा सन्यास के लिए पुत्र का गृहत्याग करने पर होनेवाली पुत्रवियोग की व्याकुलता तथा मरणोत्तर संस्कारादि की चिन्ता से विह्वल माता से अनुमति प्राप्त कर गृहत्याग कर दिया । युधिष्ठिर शक २६३९ कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी को सन्न्यास पथपर प्रयाण कर युधिष्ठिर शक २६४० फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, गुरुवार को उन्होंने गुरुवर यतीन्द्र श्रीगोविन्द भगवत्पाद से विधिवत् सन्यास ग्रहण किया ।
श्रीभगवत्पाद शङ्कराचार्य ने बदरीकाश्रम में रहकर युधिष्ठिर संवत् २६४० से २६४६ तक नौ से सोलह वर्ष की आयु तक श्रीविष्णुसहस्रनाम, श्रीमद्भगवद्गीता, ईश- केनादि उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों पर अद्भुत भाष्य लिखे । उन्होंने प्रपञ्चसार नामक तन्त्रग्रन्थ, विवेकचूड़ामणि आदि प्रकरणग्रन्थों तथाख सौन्दर्यलहरी आदि स्तोत्रग्रन्थों की भी रचना की ।
३२ वर्षकी अल्पायु की सीमा में ही आदिशङ्कराचार्य महाभाग ने उस समय भारत में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव और सनातन धर्म के विरुद्ध उत्पात एवं सनातन देवी-देवताओं के अपमान का सामना करनेमें असक्षम बन चुके सनातनियों को संगठित कर तथा सनातन धर्म में पैठ बना चुकी विसंगतियों को दूर कर सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया । श्री महंत अध्यक्ष गोपाल गिरी श्री पंचदशनाम आह्वान अखाड़ा ने कहा आदि जगतगुरु शंकराचार्य भगवान ने धर्म मार्ग से भक्तों को कल्याण की दिशा दिखाई तथा सनातन परंपरा को एक नई दिशा प्रदान की
देश में धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था सही ढंग से चलती रहे इस उद्देश्य से उन्होंने देश के चार भागों पुरी, शृंगेरी, द्वारिका तथा बदरीकाश्रम में चार शङ्कराचार्य आम्नाय मठों अर्थात् धार्मिक राजधानियों की स्थापना की तथा चारो मठों में एक-एक शङ्कराचार्य को प्रतिष्ठित कर सनातन धर्म की परम्परा को सुरक्षितn रखने का मार्ग प्रशस्त किया । चारों मठों के शङ्कराचार्यों को शिवावतार मानते हुए उन्होंने सबों का महत्त्व अपने समान ही प्रतिष्ठित किया ।